November 20,2019 - November 27,2019
आचार्य शंकर एवं शास्त्रार्थ की परम्परा
आचार्य शंकर के भाष्य - प्रणयन का मुख्य उद्देश्य वैदिक मत की स्थापना है। उनके मत में वैदिक चिन्तन समरसता, समग्रता, समावेशिता तथा एकता का प्रतिपादन करता है। इससे इतर चिन्तन कहीं न कहीं आंशिकता तथा संकीर्णता का द्योतक है। किसी भी व्यक्ति में निहित चिन्तन ही उसके व्यवहार का प्रेरक होता है। इस प्रकार समग्र वैदिक चिन्तन से सम्पन्न व्यक्ति वैश्विक व्यक्तित्व से सम्पन्न होकर लोक-कल्याण हेतु समर्पित होगा। ऐसा उनका अभिप्राय है।
भारतीय ज्ञान-परम्परा शास्त्रार्थ पर आधारित रही है। यहाँ कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान या चिन्तन को तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर सकता है तथा किसी भी विषय के आचार्य शास्त्रार्थ के द्वारा अपने मत को स्थापित करने हेतु स्वतन्त्र हैं । इसी क्रम में अपचार्य शंकर ने अपने भाष्यों (ग्यारह उपनिषदों पर भाष्य, ब्रह्मसूत्र पर भाष्य तथा गीता पर भाष्य) में वैदिक मत को स्थापित करने हेतु तार्किक पद्धति अपनायी है। उनकी तार्किक पद्धति का नाम 'अधिकरण पद्धति' है जिसमें कोई भी एक विषय (issue) रखा जाता है, यदि उस विषय में विद्वानों के मध्य संशय है तो विपक्षी विद्वानों के मत को पूर्वपक्ष के रूप में रखा जाता है । इसके बाद सिद्धान्ती (उत्तरपक्ष) उससे असहमत होते हुए उसका खण्डन करता है तथा अन्ततः अपना सिद्धान्त स्थापित करता है -
विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्ताथोतरम् ।।
संगतिश्चेति पञ्चाङ्गं शास्त्रे ऽधिकरणं स्मृतम् ।।
आचार्य शंकर ने तत्कालीन समाज की आवश्यकता को समझकर वैदिक मत की पुनः स्थापना दो प्रकार से की है - प्रथम वेद को प्रमाणभूत मानने वाले आचार्यों तथा उनके दार्शनिक सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए तथा द्वितीय वेद का प्रमाण नहीं मानने वाले आचार्यों एवं उनके सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए । प्रथम पक्ष में आचार्य शंकर ने मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, व्याकरण, पाञ्चरात्र या भागवत मतों का खण्डन किया है। आचार्य शंकर की दृष्टि से इन सिद्धान्तों से सम्बद्ध आचार्य आंशिक रूप से वैदिक मत को स्वीकार करते हैं तथा आंशिक रूप से अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए नवीन चिन्तन स्थापित करते हैं । इन सभी के जो भी पक्ष वैदिक मतों के अनुकूल हैं , उसे वे सहर्ष स्वीकार करते हैं तथा जो पक्ष उनकी बौद्धिक कल्पना हैं, उसे वे पूर्वपक्ष में रखकर उसका खण्डन करते हैं। यथा सांख्य के पुरुष और प्रकृति के स्वरूप को वे यथावत् स्वीकार करते हैं। किन्तु पुरुष (चैतन्य) की अनेकता एवं प्रकृति (जड़) की स्वतंत्रता को वे वेद विरुद्ध मानते हुए उसका खण्डन करते हैं। इसी प्रकार उनका खण्डन पक्ष अग्रसर होता है।
वेद को अप्रमाणभूत मानने वाले बौद्ध, जैन एवं चार्वाक का वे तार्किक रूप से खण्डन करते हैं। इसी क्रम में बौद्ध के सभी चार सिद्धान्त-वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार विज्ञानवाद तथा माध्यमिक शून्यवाद का खण्डन करते हैं। जैन तथा चार्वाक के सिद्धान्तों को भी पूर्वपक्ष में रखकर उनका खण्डन करते हैं।
यदि पक्षापात रहित होकर देखें तो उनके लिये सबसे प्रबल पूर्वपक्ष सांख्य है क्योंकि समाज उसे वैदिक मानता हैा किन्तु कई दृष्टि से वह अवैदिक है। आचार्य शंकर उसे 'प्रधान मल्ल' (सबसे प्रबल पूर्वपक्ष) मानते हैं। उसके बाद न्याय को वे अत्यन्त स्थूल दर्शन की कोटि में रखते हैं। किन्तु उसके सिद्धान्त 'अद्वैतवाद' को बौत्द्ध के 'माध्यमिक शून्यवाद' के सबसे अधिक निकट देखा जाता है। यही कारण है कि वेदान्त के आचार्यों ने उन्हें 'प्रच्छन्न बौद्ध' (अर्थात् वेदान्त के वेश में बौद्ध होना) की संज्ञा दे दी । उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि आचार्य शंकर तार्किक दृष्टि से वैदिक मत को नहीं मानने वाले सभी मतों का खण्डन किया है। अतएव उन्होंने बौद्ध और जैन का आग्रहपूर्वक विशेष रूप से खण्डन किया है, यह कहना सर्वथा अनुचित है । ये सभी भारतीय परम्परा के दर्शन है, इसलिये उन्होंने शास्त्रार्थ के अन्तर्गत इन सभी को पूर्वपक्ष में रखा है। निम्नलिखित उद्धरणों से उपर्युक्त विश्लेषण की प्रामाणिकता स्पष्ट होती है –
ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य
1.1.1 से 1.1.4 तक मीमांसा का खण्डन
1.1.5 से 1.1.11 तक सांख्य का खण्डन
1.4.11 से 1.4.13 तक सांख्य का खण्डन
2.1.1 से 2.1.2 तक सांख्य का खण्डन
2.1.2 से 2.1.3 तक योग का खण्डन
2.2.2 से 2.2.3 तक न्याय - वैशेषिक का खण्डन
2.2.18 से 2.2.32 तक बौद्ध का खण्डन
2.2.33 से 2.2.36 तक जैन का खण्डन
2.2.42 से 2.2.45 तक पाचरात्र मत (भागवतमत) का खण्डन
इसी प्रकार उपनिषद् शाडकरभाष्य एवं गीता शाङ्करभाष्य में उपर्युक्त सभी मतों का खण्डन उपलब्ध है।
शंकराचार्य जी की तार्किक पद्धति से विद्यार्थियों को अवगत कराना चाहिये क्योंकि यह उनमें सौम्य ढंग से किसी पक्ष का विश्लेषण करने व समझने की प्रवृत्ति को विकसित करता है। इसे शोध-प्रविधि (Research Methodology) का भी एक आदर्श प्रारूप माना जाता है, जिसकी प्रशंसा वैश्विक स्तर पर की जाती है। भारतीय स्वभावत: तार्किक होता है जिसे अमर्त्य सेन ने "Argumentative Indian" नामक पुस्तक के माध्यम से व्याख्यायित किया है ।
आदि शंकराचार्य तथा मंडन मिश्र के मध्य शास्त्रार्थ
काशी में आचार्य शंकर और मीसांसादर्शन के प्रचण्ड विद्वान कुमारिल भट्ट का मिलन शंकराचार्य के जीवन की एक ऐसी घटना थी, जिसके कारण उन्हें मध्यप्रदेश की दुबारा यात्रा दिग्विजय के लक्ष्य से करनी पड़ी । उक्त घटना से आचार्य का रुपान्तरण कर दिया था। आचार्य शंकर जब कुमारिल भट्ट से मिले, तब भट्ट समाधि की स्थिति में थे । ऐसी स्थिति में अचार्य उनके शास्त्रार्थ-ज्ञान से परिचित नहीं हो पाए। शंकराचार्य की खिन्न्ता को भाँप कर कुमारिल भट्ट ने उन्हें प्रेरित किया की वे माहिष्मती-निवासी उद्भट विद्वान् मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ करें ।
कुमारिल भट्ट के सुझाव से आचार्य शंकर नर्मदातट पर अवस्थित माहिष्मती नगरी के लिए काशी से प्रस्थान करते हैं । कर्ममीमांसा के पारदर्शी विद्वान् मण्डनमिश्र हिममित्र के पुत्र थे (माधवाचार्य, शंकरदिग्विजय, सर्ग 7, श्लोक 11)। प्रख्यात मीमांसक मण्डनमित्र के व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता उनका अद्भुत शास्त्रकौशल था। अपने मत की अकाट्य सम्पुष्टि के कारण ही मालव-समाज में वे 'मण्डन' के नाम से विश्रुत थे। मण्डनमिश्र कुमारिल भट्ट के शिष्य थे तथा उनसे शाबरभाष्य का अध्ययन किया था।
मण्डनमिश्र की विलक्षण प्रतिभा एवं पांडित्य पर मुग्ध होकर भारती ने उनसे विवाह किया था (व्यासाचल, शंकरविजयमहाकाव्य, सर्ग 6, श्लोक16)। भारती को शंकराचार्य-विषयक अन्य संस्कृत-ग्रंथों में शारदा, उभय भारती, सरस्वती एवं सरसवाणी, आदि नामों से स्मरण किया गया है। वे भी विलक्षण प्रतिभा-सम्पन्न थी।
माधवाचार्य ने लिखा है कि अपनी दिग्विजय-यात्रा में आचार्य शंकर काशी ने चलकर प्रयाग होते हुए माहिष्मती गये थे। वहां पहुंचने पर नर्मदानदी के शीतल जलकणों से आर्द्र शाल वृक्षों को कम्पित करने वाली वायु ने शंकर की सेवा की। नर्मदा के किनारे अवस्थित विशाल शिवालय में अपने शिष्यों को विश्राम की अनुमति देकर शंकर मण्डनमिश्र के आवास की ओर चल पड़े।
बारहवीं शताब्दी के संतकवि विद्यारण्य ने अपने महाकाव्य 'श्री शंकरदिग्विजय' में यह विवरण दिया है कि आदि शंकर तथा मंडनमिश्र के बीच नर्मदातट पर बसी महिष्मती नगरी में सात दिनों तक शास्त्रार्थ चला था। तदनुसार शंकराचार्य नर्मदातट पर अवस्थित माहिष्मती (महेश्वर) पहुंचते हैं। दोपहर का समय था। पनघट में नारियां पानी भर रही थी। उन्हीं में से एक सुवाम्बा नामक पनिहारिन से आचार्य मंडनमित्र के निवास स्थान का पता पूछते हैं। पनिहारिन संस्कृत में वार्तालाप करते हुए शंकराचार्य से कहती है कि समीपस्य राजमार्ग पर पूर्व दिशा में मंडन मिश्र का भवन सुविख्यात है, जहां दरवाजे में स्थित पिंजड़ों में निबद्ध शुक-सारिकाएं शास्त्रार्थ करती हुई प्रमाणत्व पर विचार करती हैं –
स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं, कीरांगना यत्र गिरं गिरन्ति।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्धा, जानीहि तन्मण्डनमिश्रधाम।
(आनंदगिरि, शंकरविजय, प्रकरण 56)
शंकराचार्य अवाक् होकर पनिहारिन की ओर देखते हैं। पनिहारिन पुनः निवेदन करती है –''फलप्रदं कर्मफलं प्रदोष''
आदि पंक्तियों में मंडनमिश्र के आवास का पुन: परिचय देती है। पनिहारिनें पुनः एक स्वर से कुछ इस प्रकार कहती है- "जिस द्वार पर पिंजड़े में बैठी सारिकाएं आपस में विचार करती हों कि यह संसार नित्य है या अनित्य, वेद स्वत: प्रमाण है या परत: प्रमाण है, वेद का तात्पर्य सिद्ध वस्तु के प्रतिपादन में है या साम्य वस्तु के प्रतिपादन में। उसे ही आप मण्डनमिश्र का आवास समझें।" तद्नुसार आचार्य शंकर मण्डनमिश्र का आवास आसानी से खोज लेते हैं।
मण्डन मिश्र अपने निवास स्थान पर जिस समय श्राद्धकर्म कर रहे थे, उसी समय शंकराचार्य वहां उपस्थित होते हैं। मण्डन मिश्र की भौहें टेढ़ी हो जाती हैं। मुख पर कुटिल रेखाएं पड़ जाती हैं। वे संकल्प करना भूल कर क्रुद्ध दृष्टि से शंकराचार्य की ओर देखते हैं। शंकराचार्य आचार्य मित्र के पादपद्मों में नमन करते हैं। मण्डन मिश्न उत्तेजित होकर कहते हैं- "धृष्ट संन्यासी! तुम किसका आदेश लेकर यहां उपस्थित हुए हो।" शंकराचार्य ने निवेदन किया कि एक ही पथ के पथिकों को एक-दूसरे से आदेश लेने की क्या आवश्यकता है आचार्य! मण्डन मिश्र ने जब शंकराचार्य से उनके कथन का आशय समझना चाहा, तो शंकराचार्य ने कहा- "आप भी वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिये प्रयत्नशील हैं और मैं भी। जब उद्देश्य एक हो, तो हमें परस्पर सहयोग करना चाहिए।" मण्डन मिश्र ने इसे उचित तो माना, किन्तु यह भी कहा कि श्राद्धकर्म के समय शंकर-जैसे संन्यासी की उपस्थिति वर्जित है। शंकराचार्य ने निवेदन किया कि वे उसी वर्जना पर निर्णय करने के लिए आचार्य मिश्र की शरण में आए हैं। मण्डन मिश्र समझ गए कि शंकराचार्य उनसे शास्त्रार्थ करने के विचार से आए हैं । दोनों के बीच अगले दिन से शास्त्रार्थ प्रारंभ हो जाता है। इन शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र की पत्नी भारती दोनों के बीच निर्णायिका बनती हैं। ''पूर्व घोषणा के अनुसार उक्त शास्त्रार्थ में पराजित होने वाला विजयी का शिष्य बन जायेगा।" ऐसा विधान था। मण्डन मिश्र तथा शंकराचार्य के बीच जो शास्त्रार्थ छिड़ा, उसकी कुछ झलकियां इस प्रकार हैं-
मण्डन : आचार्य शंकर कहते हैं कि वे वैदिक धर्म का पुनरुत्थान करना चाहते हैं । पर मेरा कथन है कि वे स्वयं जिस धर्म का प्रचार कर रहे हैं, वह भी तो वैदिक धर्म नहीं है। वैदिक धर्म का तो पूरा प्रचार तब होगा, जब हवन और अग्निहोत्र से अरुण आकाश का रंग धूमिल हो जायेगा। वेदमंत्रों की स्वरलहरी वायुमण्डल में निनादित हुआ करेंगी। आचार्य शंकर के पंचायतन और वेदान्त का वैदिक धर्म में कोई स्थान नहीं हो सकता।
शंकर : आचार्य मण्डन ! यज्ञ, हवन, संध्या आदि तो मन को शुद्ध करने के लिए साधनमात्र है। ये जीवन के साध्य नहीं है और साधन जीवन नहीं होता। ध्येय जीवन होता है।
मण्डन : क्या आचार्य शंकर यह कहना चाहते हैं कि यज्ञ-यागादि का प्रचार किये बिना, आर्यों की प्राचीन प्रथाओं का पालन किए बिना, आर्यधर्म का पुनरुद्धार हो जायेगा?
शंकर : हां, मैं यह कहता हूं और विश्वासपूर्वक कहता हूं। साधन तो देश और कालानुसार बदल रहते हैं।
मण्डन : क्या वे पुराने दिन नहीं लौट सकते ?
शंकर : आचार्य मंडन ! समय तो गंगा की धारा है, जिसे एक बार समतल पर उतर आने पर वापस हिमालय पर नहीं ले जाया जा सकता। समय संस्कार डालता है। समय के साथ संस्कार बदलते रहते हैं। लेकिन संस्कार बाह्य पदार्थ है। मूल वस्तु है आत्मा। चाहे कितना भी रूप परिवर्तन हो, पर आत्मा नहीं बदलनी चाहिए। अगर वैदिक धर्म की आत्मा नहीं बदली, तो साधनों का रूप कुछ भी हो, वैदिक धर्म उन्हीं की नींव पर अमर रहेगा।
मण्डन : मैं कृतार्थ हुआ शंकराचार्य। मेरी समस्त शंकाएं निर्मूल हो गयीं। मैं शुद्ध चित्त से अपनी पराजय स्वीकार करता हूं।
यह ध्यातत्व कि माहिष्मती की पंडित्यसभा ने एकस्वर से भारती को निर्णायक बनाया था। अपनी निर्णायक की भूमिका में बारती ने दोनों के कण्ठों पर मालाएं पहना कर माला की म्लानता को पराजय का कारण घोषित करते हुए अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया था। उन्होंने कहा था कि जिसके कण्ठ की माला मिलन हो जाएगी, वहीं शास्त्रार्थ में पराजित समझा जायेगा –
माला यदा मलिनभावमुपैति कण्ठे,
यस्यापि तस्य विजयेतरनिश्चयः स्यात्।
(माधवाचार्य , शंकरदिग्विजय , सर्ग ८, ६८ )
यह कहकर भारती गृह कार्य में संलग्न हो गयीं। जब वे लौटी, तो क्या देखती हैं कि मण्डन मिश्र के कण्ठ की माला मलिन हो गयी है और पंडितसभा पूर्व की घोषणा के अनुसार आचार्य शंकर को विजयी मान लेती है। मण्डनमिश्र पराजय स्वीकार कर लेते हैं।
इसी बीच भारती हस्तक्षेप करती हैं। वे कहती हैं - "मण्डनचार्य अभी पराजित नहीं हुए। वे विवाहित हैं और विवाहित पुरुष की धर्मपत्नी उसकी अर्द्धांगिनी होती है। जब तक उनकी अर्द्धांगिनी को परास्त नहीं किया जाता, मण्डन मिश्र पराजित नहीं माने जा सकते।"
भारती के उक्त निर्णय को सुनकर शंकराचार्य उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हो जाते हैं। मण्डन मिश्र उक्त शास्त्रार्थ के निर्णायक बनते हैं। और शास्त्रार्थ के अंत में भारती कहती है –
भारती : आचार्य शंकर रुकें। मैं अपनी पराजय स्वीकार करती हूँ। समुपस्थित भद्रजनों ! मेरी इच्छा आचार्य से शास्त्रार्थ करने की नहीं थी। मैं केवल इतना चाहती थी कि मण्डन मिश्र सरीखे प्रकाण्ड पण्डित को परास्त करने वाला आचार्य किसी क्षेत्र में अपूर्ण न रहे।
मण्डनमिश्र अपने प्रतिपक्षी विद्वान् आचार्य शंकर का शिष्यत्व ग्रहण कर उन्हीं से सन्यास की दीक्षा लेकर सुरेश्वराचार्य के नाम से विख्यात हुए (सदानन्द व्यास, शंकरदिग्विजयसार, सर्ग 9, श्लोक 15)। सुरेश्वराचार्य का अद्वैत के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान था। सुरेश्वराचार्य के विलक्षण गुणों एवं गुरुभक्ति को देखकर आचार्य शंकर ने स्वस्थापित चतुर्मठों में सर्वाधित प्रमुख श्रृंगेरीपीठ के प्रथम प्रधान आचार्य के रूप में उन्हें नियुक्त किया था। (माधवाचार्य, तदेव, सर्ग 12, श्लोक 60)। इस प्रकार एक मालवपुत्र को दक्षिण में भारतीय एकात्मकता के विकास का सुअवसर मिला।
कापालिकों तथा अन्य मतावलम्बियों से शास्त्रार्थ
(स्थान : उज्जयिनी)
माधवाचार्य ने अपने "शंकरदिग्विजय महाकाव्य" (सर्ग 15) में लिखा है कि अपनी दिग्विजय-यात्रा के द्वितीय चरण में उत्तर के मार्ग से चलकर आचार्य शंकर अपने शिष्यों के साथ उज्जयिनी आए थे । आचार्य ने दो मास उज्जयिनी में निवास कर महाकाल की पूजा-अर्चना की थी।
आचार्य शंकर जब उज्जयिनी आए तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उज्जयिनी कापालिकों की मुख्य स्थली बन चुकी थी (आनन्दगिरि, शंकरविजयचम्पू, प्रकरण 19)-
तस्मात् पुरादुत्तरमार्गगामी श्री शंकराचार्यगुरुः सशिष्यः।
स उज्जयिन्यारव्यपुरं ददर्श कापालिकाचार्यपरैः समेतम् ।।
कौन थे ये कापलिक ? शिव के 'कापाली' स्वरूप की पूजा करने वाले कापालिक शैवों की पाशुपत-सम्प्रदाय की एक गूढ़ शाखा से समबद्ध थे, जिनके अपने पृथक् ग्राम भी उस युग में "कापालिकग्राम'' के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे (इपी. इंडिका, 10:37)। वराहमिहिर की बृहत्संहिता (86.22) के वाक्यांश "कापालिकाः प्रसिद्धाः तपस्थिन;" के अनुसार ये मानव अस्थियों से पूरी तरह अलंकृत रहते थे । खोपड़ी में ही भोजन करते थे। ब्राह्मण के कपाल से मंदिरा पीते थे एवं अग्नि में नरमांस की आहुति करते थे। पुराणों (लिंगपुराण 9, कूर्मपुराण 16.1) तथा अभिलेखीय संदर्भों (इण्डियन एण्टीक्केरी, 9:17) में इस सम्प्रदाय की चर्चा इतर अन्य सम्प्रदायों के साथ की गयी है। आन्ध्र-अभिलेखों (सेलेक्ट इंस्क्रिप्शंस, 286) में 'कापालिनी' का भी उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदि शंकर के युग में कापालिकों का विस्तार समूचे भारत में हो चुका था। खजुराहो में कापालिक तथा कौलसाधकों की व्यभिचार-संबंधी क्रियाओं को प्रदर्शित करने वाले कुछ दृश्य हैं। कापालिक तथा उनके गर्हित कृत्य भवभूति के 'मालतीमाधव', सोमदेव के 'कथासरित्सागर' तथा राजशेखर की 'कर्पूरमंजरी' - जैसी कृतियों में मिलते हैं। इनमें ‘रतिचक्र महोत्सव ' की प्रधानता होती थी। कृष्णमिश्र के अनुसार कालान्तर में दिगम्बर तथा कापालिक मालवा में आभीरक्षेत्र तक सीमित हो गए थे (इंडियन हिस्टॉरिकल क्वार्टर्ली, 12:8) । अभिलेखों में इन्हें ' महाव्रतधराः' कहा गया है।
कापालिकों के सुस्पष्ट अभिलेखीय सन्दर्भ छठी शताब्दी से मिलने लगते हैं । अतएव स्वाभाविक है कि जब आचार्य शंकर उज्जयिनी पहुँचे, तो उन्हें सबसे पहले कापालिकों के अमर्यादित आचरण को देखकर पीड़ा हुई होगी। माधवाचार्य ने उज्जयिनी के वामाचारी शवसाधना का चित्रण इस प्रकार किया है –
नरशीर्षकुशेशयेरलब्घ्वा रूधिराक्तैर्मधुना च भैरवार्चन् ।
उमया समया सरोरुहाक्ष्या कथमाश्लिष्टवपुर्मुदं प्रयायात्।।
(शंकरदिग्विजय, सर्ग १५ , श्लोक ४)
यहाँ कापालिकों की साधना अत्यन्त विप्लवकारी थी। यद्यपी ये कापालिक अपने को शिव का भक्त मानते थे, किन्तु प्रायः ये चामुण्डा देवी की आराधना करते थे। इससे यह प्रतीत होता है कि उज्जयिनी के पाशुपत-सम्प्रदाय पर तांत्रिक प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया था। यहाँ के कापालिकों की पंचमकार-साधना सुविदित है –
मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रां मैथुनमेव च ।
मकारपंचकं कृत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।
यशोधर्मा के मंदसौर-अभिलेख (सेलेक्ट इंस्क्रिप्शंस 286) में शिव को 'कपालधारी' कहा गया है। बस्तर से 'बटुक भैरव' की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं । 'बटुक भैरव' रुद्रेश्वर या रुद्रशिव की अभिव्यक्ति का एक विशिष्ट रूप था। इस मूर्ति के साथ एक कुत्ता भी चित्रित है। प्रतिमा के एक हाथ में कपाल है। इस प्रकार 'बटुक भैरवों' से कापालिकों का प्रत्यक्ष संबंध था।
कापालिक नरबलि के लिए भी कुख्यात थे। वे सिद्धि प्राप्त करने के लिए नरबलि करते थे (ई.एच.आई., 2:27-28)। कथासरित्सागर के अनुसार मनुष्य का मांस-भक्षण करने से उन्हें उड़ने की शक्ति प्राप्त हो जाती थी। पार्श्वनाथचरित (2:288) में कापालिक काली के समक्ष 108 नरमुण्डों की बलि करना चाहता था। आचार्य शंकर के उज्जयिनी-प्रवास के अवसर पर उग्र भैरव तथा क्रकच नामक दो कापालिकों ने उनकी बलि देनी चाही थी । इन घटनाओं का उल्लेख माधवाचार्य ने इस प्रकार किया है –
(क) उग्र भैरव नामक कापालिक आचार्य शंकर का छद्म रूप से शिष्य बन गया था। एक दिन अवसर पाकर वह त्रिशूल से आचार्य का शिरच्छेदन करने ही वाला था कि आचार्य के शिष्यों ने उसे पकड़ लिया (शंकरदिग्विजय, सर्ग श्लोक 1-3)।
(ख) क्रकच नामक दुराग्रही कापालिक जब शास्त्रार्थ में पराजित हो गया, तो उसने अपने शिष्यों के सहित आचार्य पर आक्रमण कर दिया। उसी समय आचार्य की सहायता के लिए सुधन्वा की सेना पहुँच गयी तथा आचार्य बच गए (तदेव, सर्ग 15, श्लोक)।
उक्त घटनाओं से यह संकेत मिलता है कि उस युग में नरबलि की कुप्रथा विद्यमान थी और आचार्य के रूप में कापालिकों को उनसे उत्तम वध्य पुरुष और कौन मिलता? बस्तर के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उस युग में समूचे 'चक्रकोटमंडल' में नरबलि को राजकीय मान्यता प्राप्त थी (हीरालाल शुक्ल, आदिवासी सामंतवाद, दिल्ली 1987,पृ.138) आचार्य शंकर ने उज्जयिनी में भीषण भैरवसाधना तथा नरबलि बंद करवायी थी (चिट्लिासयति, शंकरविजयविलास, अध्याय (28-29)।
अनन्ताद्रि ने अपने ग्रन्थ 'शंकरविजय' में कहा कि ये कापालिक स्फटिक धारण करते थे। उनकी जटाएँ अर्धचंद्राकार होती थी और उकना उपास्य भैरव था। कापालिकों को महिला के साथ रमण करने का विशेष अधिकार प्राप्त था और किसी भी भौतिक इच्छा की पूर्ति ही उनके लिए शास्त्रविधान था। कापालिकों का प्रमुख लक्ष्य कामसाधना थी। वर्ष भर में ये एक दिन किसी स्थान पर एकत्र होते थे और उन्मुक्त भाव से पंचमकारों का सेवन करते थे। सामाजिक आचार-संहिता का पालन कराने के लिए आचार्य शंकर ने इन्हें बाध्य कर दिया था।
माधवाचार्य के अनुसार अवन्तिका-प्रवास के समय माला, अलंकार, कुण्डल, चूड़ामणि, भस्म व यज्ञोपवीत नामक छह मुद्रिकाओं को धारण करने वाले एक कापालिक-प्रमुख ने आचार्य शंकर के साथ गंभीर शास्त्रार्थ किया था । उसने कहा था - "आचार्य, कर्म से मोक्ष संभव नहीं है । अत: हमारे मतानुसार कर्महीन होना ही सर्वोत्तम है। हम अष्टरूप भैरव की साधना करते हैं। अत: आप भी हमारे मत में दीक्षित होकर अद्वैत की रट लगाना बंद कीजिए और मोक्ष के अधिकारी बन जाइए।" ऐसा सुनकर आचार्य शंकर ने उत्तर दिया - "मूर्ख ! क्या अनर्गल प्रलाप करता है? तुम लोग कितने पतित हो गए हो। पंचमकारों का सेवन छोड़कर सामाजिक आचारसंहिता का पालन करो। मोक्षमार्ग का यही साधन है" (तदैव)। अन्ततोगत्वा आचार्य ने उसे शास्त्रार्थ में पराजित किया। उञ्जयिनी के कापालिकों हृदयपरिवर्तन हुआ और वे वेदान्तपथ के पथिक बन गए । (आनन्दगिरि, शंकरविजयचम्पू, प्रकरण 19)।
अन्य मतावलम्बियों में शास्त्रार्थ –
उज्जयिनी के कापालिकों को शास्त्रार्थ में पराजित जान कर अन्य मतावलम्बियों ने आचार्य शंकर से शास्त्रार्थ करने की इच्छा व्यक्ति की । उस समय उज्जयिनी में भट्ट भास्कर नामक वैदिक विद्वान की तूती बोलती थी। आचार्य शंकर ने अपने शिष्य पद्मपाद को उक्त विद्वान से शास्त्रार्थ करने को भेजा और भट्ट भास्कर उनसे शास्त्रार्थ में पराजित हुए थे (माधवाचार्य, तदेव, सर्ग 15)। इसी प्रकार बाणभट्ट, मयूरभट्ट, एवं दण्डी आदि के द्वैतविषयक मतों का खण्डन कर आचार्य ने शारीरिक भाष्य के प्रति उनमें श्रद्धाभाव को जगाया था (तदेव)। उजायिनी में ही आचार्य ने मध्यम परिमाणवादी जैन - मतावलम्बियों के मत का खण्डन किया था (तदेव) । वहाँ प्रचलित शाक्त मत का खण्डन कर उन्होंने अद्वैत मत का प्रचार-प्रसार किया था (चिद् विलासयति, शंकरविजयविलास, अध्याय 28-29)| चार्वाक, क्षपणक तथा सौगत मतों के विद्वान् भी शास्त्रार्थ में पराजित हुए थे (आनन्दगिरि, शंकरविजयचम्पू, प्रकरण 19)।
इस प्रकार आचार्य शंकर ने उज्जयिनी के कापालिक, वैदिक, दैत, जैन, शाक्त, चार्वाक, क्षपणक, सौगत, पाशुपत तथा वैष्णवमत के दिग्गज विद्वानों के सिद्धान्तों का खण्डन किया था तथा अद्वैतमत की स्थापना की थी -
इति वैष्णव-शैव-शाक्त-सौर-प्रमुखानात्मवशंवदान्विधाय। अतिवेलवचोक्षरीनिरस्तपतिवाद्युज्जयिनीं पुरीमयासीत् ।।
सपदि प्रतिनादितः पयोदस्वनशड्काकुलगेहकेकिजालैः ।
शशन्भृन्मुकुटटार्हणा मृदङ्गध्वनिर श्रूयत यत्र मुर्च्छिनाश: ।।
मकर ध्वजविद्विडाप्तविद्वाश्रमहृत्पुष्पसुगन्धवन्मरुद्भिः ।
अगरूद्भवधूपधूपिताशं स महाकालनिवेशनं विवेश ।।
(माधवाचार्य, शंकरदिग्विजय, सर्ग १५, श्लोक ७६-७९)
'महाकाल निवेशन' के साथ ही आचार्य शंकर के विजय की दुन्दुभी सम्पूर्ण उज्जयिनी में गूंजने लगती है। आचार्य के ही कारण उज्जयिनी अपने खोए वैभव को पुन: प्राप्त करती है।
उपसंहार
आदि शंकर के निर्वाण के बारह सौ वर्षों के बाद लोगों को यह ज्ञात ही नहीं है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में हुई थी। महान् संगठन-कर्ता आचार्य शंकर ने देश को एकसूत्र में पिरोने के लिए चार वेदों के आधार पर चार पीठों की स्थापना की थी । माना कि ये चारों पीठ उनकी स्मृति के आधारस्तम्भ हैं, किन्तु मध्यप्रदेश की हवा से ये ऐसे गायब हो गए हैं, जैसे किसी जादूगर के जाने के बाद गायब हो जाता है। यह सब बड़ा विचित्र है।
आदि शंकर एक ऐसे आदर्श राष्ट्रनायक थे, जिन्होंने प्राचीन भारत के मर्म को छुआ था और इतिहास में पहली बार करोड़ों लोगों को वेदान्तदर्शन के लिए प्रेरित किया था। वे भारत के एकमात्र ऐसे राष्ट्रनायक हैं, जिन्होंने इस देश की जमीन पर अद्वैत का प्रयोग किया और उसे सफल कर दिखाया। आदि शंकर के बिना भारत का समूचा जीवनदर्शन अमौलिक और वन्ध्या है । जो ऊपर जमीन सिर्फ एक बार दिगदिगन्त में लहराई हो, वह अपने राष्ट्रनायक का नाम भला कैसे भूल सकती है ?
लेकिन आचार्य शंकर के पुण्यस्मरण में कोई कृतज्ञता क्यों नहीं है ? उनकी ओंकारेशर में दीक्षा और उनकी मौलिकता के प्रति आश्चर्य क्यों नहीं है । यह भयावह बोध क्यों नहीं है कि उन्होंने अनहोनी को होनी में परिवर्तित कर दिया था ।
क्या कारण है कि मध्यप्रदेश ने किसी समय-बिन्दु पर अकार अपने को कालप्रवाह से काट लिया है और एक कालातीत प्रतलोक में लटक गया है ? मध्यप्रदेश का यह ऊसर जमीन अगर अपने त्राता को याद नहीं कर सकती, तो इसका कारण यह है कि उर्वरता और बॉंझपन दोनों इसके लिए समान और निस्सार हैं।
आदि शंकर ने प्राचीन भारत के मर्म को छुआ था । उन्होंने प्राचीन भारत के विविध मतावलम्बियों की विसंगतियों को देखा था और उनसे शास्त्रार्थ करके उन्हें मनुष्य-जैसा आचरण करना सिखाया था। उन्होंने वेदविरुद्ध मतों का खण्डन किया था। सही मायने में वे एक 'क्रूसेडर' थे।धर्मयोद्धा थे।
आदि शंकर जब मध्यप्रदेश आए, तो उन्होंने तद्युतीन समाज के पतन को देखा था। उन्होंने देखा था कि उज्जयिनी- जैसी (साथ तीर्थस्थानों में से एक) नगरी कापालिकों के भ्रष्ट आचरण को किस प्रकार सहन कर रही थी। उन्होंने कपालिक - जैसे भ्रष्ट सामाजिकों को शास्त्रार्थ में पराजित कर उज्जयिनी के विगत वैभव को वापस लौटाया।
आदि शंकर का चमत्कार यह है कि उन्होंने पोखरों में बँटे हुए देश में सागर का आभास पैदा किया। उन्होंने देश को एकसूत्र में बाँधा। भारत की रूढ़ि पर उन्होंने प्रहार किया। जातिप्रथा का विरोध किया और वैदिक धर्म की स्थापना की । आदि शंकर ने जादू से उस रूढ़ि को गायब कर दिया, जिसकी चुभन भारतीयों को प्राचीन काल से हो रही थी।
आदि शंकर अपने युग की उपज है । वे युग के मुहावरों में ही बोलते हैं और युग की चुनौतियों का सामना करते हैं । वे अमर इसिलए है कि वे युगीन हैं । महानता को देश-काल से अलग करके देखना वैसा ही है, जैसे ध्वनि को माध्यम से अलग करके आँकना। आदि शंकर महापुरुष इसलिए थे के उन्होंने अपने युग को वाणी दी थी। वे युगीन थे, इसलिए उन्होंने युग को झकझोर दिया और युगान्तर कर दिया। वे युगीन थे, इसलिए उनकी महानता युग की दीवारों को तोड़कर अमर हो चुकी है। राष्ट्रनेता तब कहलाता है, जब वह विद्यमान चुनौतियों का ऐसा कोई हल निकालता है, जो नितान्त मौलिक हो या लीक से हट कर हो।
आदि शंकर ने लीक से हटकर अपने युग की जरूरतों के मुताबिक शास्त्रार्थ को माध्यम बनाया था । उन्होंने ओंकारेश्वर में बैठकर अपने गुरु की सलाह से यह मार्ग चुना था। उनसे पहले शास्त्रार्थ की ऐसी परम्परा नहीं थी । इसलिए वे महान् थे। वे चलते भी किसके रास्ते पर ? उनके पहले इस देश के महान् धर्मों में तंत्रवाद प्रवेश कर गया था। समरसता के बजाय विलासिता के सिद्धान्त का बोलबाला था । आदि शंकर महान् इसलिए नहीं थे कि उन्होंने शास्त्रार्थ के माध्यम से महेश्वर-निवासी मण्डनमिश्र- जैसे दिग्गज विद्वानों को पराजित किया था । वे महान् इसलिए थे कि उन्होंने पहली बार दैत की भावना से लड़ाई ली और समूचे भारत में अद्वैत का परचम लहराया ।
आचार्य शंकर में एक विश्वव्यापी संदर्भ था । वे एक विशिष्ट विचारधारा से ओतप्रोत थे। उनमें इतिहास के देवता का मौन-निमंत्रण था। उन्हें भारत को सुदूर क्षितिज तक ले जाने की चिंता थी और उन्होंने वह कर दिखाया। वे अपने सपनों का एक ऐसा भारत देखना चाहते थे, जिसमें दैत की भावना न हो और सभी अद्वैत से जुड़ जायँ। कोई रडार-यंत्र उनके मस्तिष्क में था, जो क्षितिज के कम्पन उन तक पहुँचाता था और शास्त्रार्थ करने की प्रेरणा देता था । आदि शंकर जब अगला चरण उठाते, तो गन्तव्य की आवाज सुन लेते थे। वे हर चरण में हजारों शिष्यों की भीड़ के साथ शास्त्रार्थ के लिए तद्युगीन विद्वानों को आमंत्रित करते थे। 'युद्ध में देहि' यही उनका नारा था । शास्त्र ही उनका माध्यम था । हर चरण उनके लिए शास्त्रार्थ था, क्योंकि हर चरण भारत को अद्वैतवाद तक पहुँचाता था। आदि शंकर के अद्वैतदर्शन ने साधन और साध्य का द्वन्द्व समाप्त कर दिया था। वे सही मायने में जगद्गुरु थे।
आदि शंकर ने जो कुछ भी लिखा और बोला, उससे ज्ञात होता है कि वे कैसे युगीन थे और कैसे युगान्तकारी ? कैसी उनकी 'फ्रेम' थी और कैसे 'फ्रेम' से विद्रोह किया था ? लेकिन हमारी फ्रेम अलग है और हमार विद्रोह भी अलग होगा।