जब जब धर्मग्लानि होती है तबतब धर्मसंस्थापन के लिए भगवान् अवतीर्ण होते है ऐसी उनकी गीता में अमरवाणी है। बौद्ध धर्म के आपसी विरोध, कलह तथा पतन एवं वैदिक धर्म में भी विविध कलुषित मत, संप्रदाय इत्यादियों का उद्भव उस समय हुआ था। ऐसी स्थिति में भगवान् शिव केरल के कालडी ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में अवतीर्ण हुए। माता पिता ने नाम रखा शंकर। आर्याम्बा को मात तथा शिवगुरु को पिता के रूप में चुना। अवतारी शिशु में समस्त दैवी गुण, प्रभा एवं प्रतिभा बाल्यकाल में है दिखती थी। 5 वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार होकर गुरुकुल में दो वर्षों में अध्ययन समाप्त करके समस्त विद्याएं करतलामलकवत् ग्रहण एवं धारण की थी।
आठ वर्ष की आयु में ही संन्यास लेकर बालक शंकर मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारेश्वर में आकर गोविन्द भगवत्पाद से योगादि शास्त्रों का अध्ययन, अद्वैत ज्ञान एवं अनुभूति प्राप्त किए। नाम हुआ भगवत्पाद। अवतार कार्य को साकार करने के लिए अपने गुरु से आदेश प्राप्त करके एक आचार्य के रूप में उन्होने विद्या तथा संस्कृति का केन्द्र वाराणसी की ओर प्रस्थान किया। वहाँ से बदरीकाश्रम जाकर गुहा में उन्होंने उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गीता पर भाष्य लिखा। तथा अन्यान्य प्रकरण ग्रन्थों की रचना की। अबतक दिग्विज के लिए पर्याप्त प्रस्तुति हो चुकी थी।
भगवान् व्यास देव ने आचार्य शंकर से शास्त्रार्थ किया तथा सोलह वर्ष की आयु भी प्रदान की। इसके उपरान्त आचार्य शंकर आर्यावर्त भारतवर्ष का परिव्रजन किये। उसमें उन्होने विविध मतों के अनुयायीयों को शुद्ध वैदिक मार्ग पर लाया। काश्मीर में सर्वज्ञपीठ का आरोहण किया। परिव्रजन के समय उन्हे चार विशिष्ट शिष्य भी मिले। देश के चार कोणों में चार मठों की स्थापना करके उनको चलाने के लिए मठाम्नाय के रूप में दिशा निर्देश भी दिए। अपनी समग्र दिग्विजय यात्रा में उन्होने कई मन्दिरों का जीर्णोद्धर किया, मूर्तिहीन मन्दिरों में मूर्तियाँ स्थापन की, पूजापाठ अनवरत चलाने के पुरोहित वर्ग की नियुक्ति की। अपनी यात्रा में आचार्य शंकर ने देवी-देवता-नदीयों के मनोहर, तत्त्व से खचित एवं भक्ति से गद्गद स्तोत्रों की रचना की।
बत्तीश वर्ष की आयु में केदारनाथ में उन्होने अपने भौतिक शरीर को हिमाच्छादित भूमि में अनन्त कि दिशा में प्रवास करते त्याग दिया। आचार्य शंकर के ग्रन्थ तथा मठ आज भी सनातन वैदिक धर्म की रक्षा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान करते आये है।
वेदान्त का मुख्य संदेश
प्रत्येक जीव तो स्वरूपतः दिव्य है। अर्थात् जीव का वास्तविक स्वरूप सत् चित् आनन्द अनन्त अद्वय अज अमर है। तथापि अविद्या के कारण वह अपने को शरीर, मन, बुद्धि इत्यादि मानता है। इस समस्या को महासमस्या कहा जाता है। मैं शरीर हूँ इत्यादिरूप अहंकार तथा स्त्री, पुत्र, धन इत्यादि मेरे है ऐसी ममता आ जाती है। इस अहंता तथा ममता के वश में आकर वह विभिन्न कर्म करता है। कर्म के कारण कर्मफल में फसता है। कर्मफल उस जीव को पुनर्जन्म के चक्र में घुमाता रहता है। जन्म-मृत्यु के इस चक्र को ही संसार कहा जाता है। संसार में घुमते समय विविध सुख-दुःखरूपी अनुभव करने पड़ते है। जीव इस सुख तथा दुःख दोनों से जब उब जाता है, जन्म-मृत्यु रूप चक्र से बाहर निकलना चाहता है, तथा निकलने के सामान्य प्रयास विफल हो जाते तो उसे उसे वेदान्त की आवश्यकता होती है। क्योंकि अपने स्वरूप के यथार्थ ज्ञान के विना इस समस्या का समाधान नहीं होता। अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान उपनिषद् के कुछ वाक्यों द्वारा होता है। महासमस्या का समाधान जिन वाक्यों में लिखा है उन वाक्यों को ही महावाक्य कहा जाता है। जैसे तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि, प्रज्ञानं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म यह चार महावाक्य है। चारों का अर्थ एक ही है। वह अर्थ यह है कि जीव तथा ब्रह्म में अभेद है। एवं एक जीव अपने स्वरूपतः अन्य जीवसे भिन्न नहीं है। सभी जीवों की आत्मा एक जैसी नहीं, अपि तु एक ही है। यह एकात्मता का सन्देश है। इस जीव-ब्रह्म में अभेदज्ञान से जीव अपने संसाररूप बन्धन से मुक्ति पाता है, तथा परमानन्द को प्राप्त करता है। इसे ही वेदान्त की भाषा में आत्यन्तिक-दुःख-निवृत्ति तथा परमानन्द-अवाप्ति कहा जाता है। यह संक्षेप में वेदान्त दृष्टि, सन्देश है।
(अविद्या के कारण ही जीव अपने को दूसरे जीव से भिन्न मानता है। यही कारण है भेदभाव का। लेकिन जीव का वास्तविक स्वरूप तो आत्मा ही है। एवं यह आत्मा हर जीव की अलग अलग नहीं है, सब की एक ही आत्मा है। यह है एकात्मता। सब की आत्मा एक होने का भाव। जब आपको पता चलेगा कि मेरी आत्मा तथा सामनेवाले जीव की आत्मा एक ही है। जो आपात भेद मालुम होता है वह तो अविद्या-अन्धकार के कारण है। वह भ्रम मात्र है। जब यह भ्रम निकल जाएगा या कमसे कम इतना पता चलेगा की यह भ्रम है तब अन्य जीवों के प्रति देखने की भावना में परिवर्तन आएगा। दूसरे जीवों का द्वेष करना, उनके क्षति का विचार करना वस्तुतः स्वयं अपना ही द्वेष करना तथा क्षति करना होगा। इस प्रकार के कई परिवर्तन आयेंगे। ऐसी एकात्मता की भावना जीवों में जितनी अधिक होगी उतना ही परस्पर व्यवहार स्वर्गीय होगा, दिव्य होगा। यह संसार जो की हेय, त्याज्य, दुःखमय माना जाता है वही दिव्य आनन्दधाम हो जाएगा। इसलिए विश्व में एकात्मता सन्देश अत्यन्त आवश्यक है। यह सन्देश युग परिवर्तन का सामर्थ्य रखता है।)